Monday, May 16, 2016

कोई मुक्ति नहीं

कविताए अभिशाप होती हैं 
और कवि होने का अर्थ होता हैं अभिशापित होना !
वह छटपटाहट को छन्द में परिवर्तित कर देती हैं 
कुछ न कर पाने की बेबसी को पहना देती हैं लबझ के कपडे 
कविता के लिए उठी कलम में मजदूर के हाथ जितनी ताकत नहीं होती 
उसकी उंगलिओ में धान काटते किसान सी नजाकत नहीं होती 
क्यूंकि दरअसल वो कुछ पा नहीं सकती 
वह न कुछ पैदा कर सकती हैं न कुछ बना सकती हैं  
वो बस भागना चाहती हैं 
और तब तक भागते रहना चाहती हैं जब तक चीखो की गूँज खत्म न हो 
जब तक पूरे बदन से निकलती खू की खुशबु हवाओं में पिधल न जाए 
जब तक दूर दूर तक दिखने बंद न हो जाए अभिशापित इंसान !
मुझे अक्सर कविताओ पे गुस्सा आता हैं 
या फिर तरस या फिर कुछ भी !
अभिशापित होकर जीते रहना बुरा तो हैं 
पर इस अभिशाप से कमबख्त कोई मुक्ति भी तो नहीं !

- मेहुल मंगुबहन, १६ मई २०१६ अहमदाबाद 

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