हाथ-पाँव कट चुके हैं
अधखुली आँखे देख रही है इधर उधर
रकत से लतपत शरीर अब नहीं रहा लड़ने के क़ाबिल
दिशाए जय घोष से गूँज रही हैं
रक्तरंजित नदी बह रही है उफान से
उस पार पड़े सारे सत्य
पराजित होने के आखरी पल में देख रहे हैं इक नज़र इधरउधर
देख रहे है शायद इस पार मेरी और
इस पार मैं अपनी पूँछ टांगो में दबाए
पराजित होते सभी सत्य को देख रहा हूँ
बेबस
लाचार
दृष्टिहीन
गौरवविहीन !
पराजित होते सत्य की
अधखुली आँखों से आँख मिलाने से डरता हूँ मैँ
दूर आसमाँ में देखर सोचता हूँ
प्राथना करता हूँ
जल्दी आ जाए चिल-कौवे
या आ जाए वो सारे देवताः जिनको मैंने और मेरी पुरखो ने पूजा है
आँखे कभी खुलती, कभी बँध होती दिख रही है चोरनजर से
होले होले चलती उनकी धड़कनो का भास हो रहा है
हाथ सिर्फ दो है मेरे पास
अब आँखे मुंदु या कान ?
मैं बुत बन जाना चाहता हूँ
जिसे सत्य के पराजित होने से
असत्य के जय घोष से कोई सरोकार न हो !
- मेहुल मंगुबहन, २४ ऑगस्ट २०१५, अहमदाबाद