Tuesday, September 22, 2015

धूमिल जब जब मैंने तुम्हे पढ़ा हैं....

धूमिल जब जब मैंने तुम्हे पढ़ा हैं....
खुद को पेड़ की छाल से कागज बनता पाया हैं 
नहाते नहाते बाल्टी में पानी को पानी से अलग करने लगाए हैं मैंने कई मुक्के 
और फिर साबुन की झाग को महबूबा के मुलायम स्पर्श की तरह महसूस की हैं !

मैं जब काम के लिए इधर उधर भागता फिरता हूँ 
फूट्पाथो पे बिखरी हुयी तुम्हारी कविताए आवारा कुत्ता समझकर हंसती हैं मुझ पर 
थका हारा जब शाम को घर लौटता हूँ तो वह मुझे बोसा नहीं देती 
चिल्लाती हैं मुझ पर की इतनी देर कहाँ कर दी ?

तुम्हारी कविताए न तो खून निकालने देती हैं न तो आंसू बहाने 
द्रोणाचार्य के कुत्ते को चुप कर देनेवाले तीरों की माफिक 
तुम्हारी कविताए मेरे निशाने पर हमेशा सटीक होती हैं 
आँख से बहते आंसू पांव तक पहुँच जाए और बदन पर एक खरोंच भी न हो !

धूमिल तुम तो ठेठ देहाती गंवार थें न 
इतनी अजब कला कहाँ से सीखी थी तुमने ?
गहरे सन्नाटो में से कैसे चुन के लाए थे ल्ब्झ तुम 
और वो भी ऐसे जैसे माली ने फूल चुने हो हलके हलके !

धूमिल 
जब जब मैंने तुम्हे पढ़ा है मैंने हवा को पाया हैं 
और उन हवा में पाए हैं आग के गोले जो फेफड़ो को जलाते है 
उन हवा में पाए हैं भूखे बच्चे जो अंतडियो को रुलाते है 
उन हवा में पाया है कोई गाँव अनजाना जो चीख चीख कर किले को घेर रहा है 
किसी अछूते कुंए से सींचकर आई औस की बुँदे भी पायी हैं मैंने उन हवा में !

धूमिल, जब जब मैंने तुम्हे पढ़ा है 
पता चला है की मुझमे कितने खंडहर वीरान पड़े हैं 
पता चला हैं की उन खंडहरों में किसके किसके कितने मुर्दे गड़े पड़े हैं 
मैं उन खंडहरों में जाकर सबको उनके नाम से बुला आता हूँ 
सारे गड़े मुर्दों को उठा उठाकर उनकी फोज़ बनाता हूँ 
जब जब मैंने तुम्हे पढ़ा है 
खुद को 
उस मुर्दों की फोज़ के साथ उस सड़क पर पाया है 
जोकि संसद तक जाती है ! 

- मेहुल मंगुबहन, २२ सितम्बर २०१५