Monday, July 20, 2015

गर मैं सिर्फ मजदूर होता

गर मैं सिर्फ मजदूर होता
मेरे बाप की तरह
मुआफ़ी मांग लेता
सर झुका लेता
आँख में भड़के लावा को
तुरंत पलट देता पानी में
गिड़गिड़ा लेता कि
गलती हो गई सरकार
माफ़ कर दे माईबाप
आगे से न आँख ऊपर होगी
नाही हाथ पैर कभी निचे
आपकी दिहाड़ी ही बड़ा उपकार हैं
आपको सब सरोकार है 
गर मैं सिर्फ मजदूर होता
तो फ़िक्र करता की
रोटी से स्लेट तक
उसकी चुनरी से मेरी कमीज तक
जिंदगी से जो भी नजदीकियाँ
वह सब आपकी दी हुयी मजदूरिया है !
गर में सिर्फ मजदूर होता तो
आपके कहे पर कूद जाता कुँए में
घूस जाता गटर में
आपकी लाठी बन बरस पड़ता किसी पर भी
ठीक मेरे बाप की तरह
या फिर मेरे बाप के बाप की तरह
या मेरी उन पुरखो तरह
जिनकी ज़ुबाने आपकी हां में हां करते
हिमालय सी बर्फ हो गई
पर मैं सिर्फ मजदूर नहीं हूँ न मालिक
थकावट के बावजूद मुझे सूझते है गीत
मुझे कविताओ के सपनें आते हैं
अच्छे लगते है मुझे बच्चन-मिथुनदा के डायलॉग्स
बड़ा खुश हो जाता हूँ जब वो गरीब को लूंटनेवाले गुंडो को पीटते है !
लोग कहते है मैं कलाकार हूँ
पता नहीं …शायद
हाँ लेकिन यह सच हैं
मुझे थकावट के बावजूद सूझते है गीत
सपनों में आती है कविताऍ
टुटा ही सही आइना रोज देखता हूँ मैं
रात तारो को देखकर गिनता हूँ मजदूरी
मुझे पता लग गया हैं
में सिर्फ मजदूर नहीं हूँ
अब बस यकीं होने की देर हैं !

- मेहुल मंगुबहन, १२ जून २०१५, अहमदाबाद