Tuesday, December 22, 2015

जब आँख खुल जाती हैं तो

बहुत बुरा होता हैं रात में आँख खुल जाना
आँख लग जाने से भी बुरा यक़ीनन
देर रात जब मेरी आँख खुल जाती हैं तो
मुझे सुनाई देती है दूर किसी हाईवे की चीखे
आँखों में सुज़न लिए एक परिचित ड्राइवर
बिना कोई मंजिल के भागता फिरता नज़र आता हैं
आँख खुल जाती हैं तो बिस्तर की सिलवटे बन जाती हैं सांप
और नाक किसी खुश्बो को ढूंढता आवारा कुत्ता बन जाता हैं
उठ खड़े होने के विचार आते तो हैं पर आँख कमबख्त
न सोने देती हैं न उठने !
वो चाहती हैं की में किसी कीड़े की माफिक यूँही रेंगुता रहू
कस्तूरी की चाह में फिरते हिरन की तरह वनवन घूमता रहू बैचेन
मैं जानता हूँ की हिरन और कस्तूरी दोनों एक ही हैं
फिर भी मैं आँख खुल जाने से डरता हूँ हमेशा
कई बार में अपनी आँखों को नोंचकर ऊपर की अलमारी में रख देता हूँ
वहां कुछ पुराने खिलोने पड़े हैं वहाँ
आँख खुल भी जाए तो खेलती रहती हैं उसके साथ
वहां ऊपर अलमारी में अच्छा ख़ासा अँधेरा होता हैं
अलमारी के खिलोने बुरा नहीं मानते किसी भी बात
नहीं होती हैं उनको मुझसे कोई शिकायत
अलमारी में आँख नहीं खोजती हैं कोई भी खुशबु !


- मेहुल मंगुबहन, १९ दिसंबर २०१५, अहमदाबाद

Friday, November 27, 2015

હું સુગંધનો વેપારી છું સાહેબજી

હું સુગંધનો વેપારી છું સાહેબજી
મારી ખુશ્બુઓનો જો઼ટો જડવો મુશ્કેલ છે
આવી ખુશ્બો નહીં મળે તમને મોલમાં
આવી ખુશ્બો નહીં મળે ઓન એર શોપિંગમાં
આ લો સાહેબ
આ છે ખાસ તમારા માટે 
મોડી રાતે ટ્રાફિક આથમ્યે 
મોહમયી મુંબઈ નગરીમાં 
સાફ થતી સડક ત્યારે
સાવરણાનાં ડંડા પર બાઝેલા પ્રથમ પ્રસ્વેદબિંદુની મહેંક છે આ સ્વેટ સ્પ્રેમાં.
હું સુગંધનો વેપારી છું સાહેબજી
પેઢી દર પેઢીનો નાતો છે અમારે ખુશ્બો સાથે
ખોટો સોદો નહીં કરું 
મુંબઈના ભાવે આ નાનકડા અમદાવાદમાં કયાંથી મળશે આવી મહેંક સાહેબજી? લઈ લો ઝટ. 
ના ગમે તો આ જુઓ સાહેબજી, 
હાથે સહેજ લગાડીને નાણી જુઓ ખુશ્બુ એની
મોડી રાતે સી.જી. રોડ પર 
એક મઘમઘતા ગ્રહનું ગોળ ઢાંકણ ખોલી
એની અંદર ઊતરી બે નામવગરના સુગંધયાત્રીઓએ
જીવ આપીને શ્વાસમાં ભરી લીધેલો આ ડ્રેનેજ સ્પ્રે છે સાહેબજી.
જુઓ તો ખરા, હું સુગંધનો વેપારી છું સાહેબજી ખોટુ નહીં બોલુ. 
આય પસંદ ના આવે તો 
તમ સરખા એનઆરઆઈ માટે
તમ સરખા એનઆરજી માટે 
બીજી એકસલુઝિવ બ્રાંડ પણ છે સાહેબજી
એની કિમત બે-ચાર પાઉન્ડ છે સાહેબજી
તમારા સ્કોચ જેટલી જ બ્રાઈટ
તમારી ટાઈ જેવી જ ટાઈટ
પ્લેબોય ને રોમાન્સ બાય રાલ્ફ લોરેનને ટકકર મારે એવી ખુશ્બુ
એમાં પીંખી નંખાયેલી બાળાના ઉઝરડાંઓથી ટપકેલાં રકતબિદુંનો અર્ક છે સાહેબજી
ને એ પણ પાછો વિવિધ વયના એવાં માપસરના ઉઝરડાંઓ સાથે ફિલ્ટર કરેલો.
આવી મહેંક તમને કયાંય નહીં મળે સાહેબજી
બોલો સાહેબ શું આપું ?
મુંબઈ બ્રાંન્ડ સ્વેટ સ્પ્રે ?
સ્પેશિયલ અમદાવાદી ડ્રેનેજ ડિલક્સ ?
કે રેર વર્જિન રેડ રિગલ સ્પ્રે સાહેબજી?
હું સુગંધનો વેપારી છું સાહેબજી.

- મેહુલ મંગુબહેન, 24 નવેમ્બર, 2015, અમદાવાદ 

Wednesday, November 25, 2015

અંધાર ફળિયુ

સુરજ સાત ઘોડલે સવાર થઈને ફરતો તો આખા ગામમાં 
પણ મારે તો પગપાળા જ પહોંચવાનું હતું એના ઘર લગી
એના દરેક કિરણની પહેરેદારીથી નજર બચાવીને
પૂરપાટ વેગે દોડતા ઘોડાઓની લોખંડીથી નાળથી બચાવીને હાડકા 
ચામડીને બાળતા કાપવાનો હતો મારગ મારે 
એ મારગ જેમાં આંબા-આંબલી નોતા, 
જેમાં નોતા પીંપળી-લીમડી
દૂર દૂર લગ છેક દૂર લગ ખોડાયેલા મૃગજળના ઝાડવા
ને વિસામો લેવા ખાતર દોહ્યલા હતાં બાવળ પણ.
સુરજ સાત ઘોડાને તાલે તબડક તાવ દઈને ફરતોતો ત્યારે  
મારે પહોંચવાનુંતુ એના ઘર લગ બળતે પગલે
ચાલ્યા કર્યુ મે,
અથડાતા-કૂટાતા
લડતા - ઝઘડતા
ટેકો દેતા, ટેકો લેતા
તળિયાનાં ફોલ્લા ફચફચ રહ્યાં ફૂટતાં 
ભૂલી જઈને અર્થ દાઝવાનો
ખરતી રહી ચામ઼ડી પણ એમ જ લસરતી
ને માંડ બરાબર પહોંચુ સુરજ લગી ત્યાં 
સાંજ પડી ગઈ ગધની
ફરી ગઢની ડેલીમાં ગરી ગ્યો ગેલસ્પફો સુરજ 
ને અંધાર ફળિયુ આખુ મારુ 
લઈ ચમચી લઈ વાટકી
ખોલી ફાળિયુ, ખોલી ધોતિયુ
હાથ લાગ્યુ તે વાસણ લઈને ખોળો પાથરી 
મુઠ્ઠીભર અજવાળાની વાટે 
ફરી ગઢને ડેલી આગળ કરગરવા બેઠું.

- મેહુલ મંગુબહેન, 24 નવેમ્બર 2015

Wednesday, October 7, 2015

कल सुबहे का सूरज जब उगेगा

कल सुबहे का सूरज जब उगेगा तो उसकी प्रत्येक किरण हमसे पूछेगी
घोर अंधकार में रातभर तुमने क्या किआ ?
क्या हम यह कहेंगे की रातभर चाँद में देखते रहे माशूका का चहरा
या फिर यह कहेंगे की उसकी नर्म आगोश में मुझे धुप से भी ज्यादा सुकून था
हम कह देंगे की रातभर हम खेलते रहे ताश मस्ती से
या लगाते रहे जाम पर जाम भयावह अँधेरे के गम में
कल सुबहे का सूरज जब उगेगा और उसकी प्रत्येक किरण करेगी हमसे सवाल
तो हम बोल देंगे कुछ फिल्मो के नाम
हम बोल देंगे रात को मेरा वोट्सेप बंध था मुझे कुछ नहीं पता !
हम कह देंगे सूरज को की तेरी तो....
चोवीस घंटे होती हैं यहाँ टोरेंट की बिजली भाड़ में जाये तेरी किरण !
हम कह देगें किरण से की इस जिन्दगी से फुर्सत कहाँ
जो हम अँधेरे या उजाले के बारे में सोचे !
कल सुबहे जब सूरज उगेगा और किरण पूछेगी हमसे अँधेरे के बारे में
तो हम सीना चौड़ा कर गर्व से कहेंगे
अबे कौनसा अँधेरा ? कैसा अँधेरा ?
फिर कल सूरज निकल जायेगा चुपचाप
सारी किरने हो जाएगी खामोश
फिर परसों
फिर नरसों
दिन गुजरते जायेंगे
सूरज चढ़ते उतरते जायेगे
मौसम बदलते जायेंगे
और हम भूलते जायेंगे
अँधेरे के माने क्या होते है ?
उजालो का अर्थ क्या होता है ?
रौशनी का सुख किसे कहते है ?
फिर एक दिन समय की दीवार हो जाएगी पूरी काली


मेहुल मंगुबहन, ७ ओक्टूबर २०१५, अहमदाबाद 

Tuesday, September 22, 2015

धूमिल जब जब मैंने तुम्हे पढ़ा हैं....

धूमिल जब जब मैंने तुम्हे पढ़ा हैं....
खुद को पेड़ की छाल से कागज बनता पाया हैं 
नहाते नहाते बाल्टी में पानी को पानी से अलग करने लगाए हैं मैंने कई मुक्के 
और फिर साबुन की झाग को महबूबा के मुलायम स्पर्श की तरह महसूस की हैं !

मैं जब काम के लिए इधर उधर भागता फिरता हूँ 
फूट्पाथो पे बिखरी हुयी तुम्हारी कविताए आवारा कुत्ता समझकर हंसती हैं मुझ पर 
थका हारा जब शाम को घर लौटता हूँ तो वह मुझे बोसा नहीं देती 
चिल्लाती हैं मुझ पर की इतनी देर कहाँ कर दी ?

तुम्हारी कविताए न तो खून निकालने देती हैं न तो आंसू बहाने 
द्रोणाचार्य के कुत्ते को चुप कर देनेवाले तीरों की माफिक 
तुम्हारी कविताए मेरे निशाने पर हमेशा सटीक होती हैं 
आँख से बहते आंसू पांव तक पहुँच जाए और बदन पर एक खरोंच भी न हो !

धूमिल तुम तो ठेठ देहाती गंवार थें न 
इतनी अजब कला कहाँ से सीखी थी तुमने ?
गहरे सन्नाटो में से कैसे चुन के लाए थे ल्ब्झ तुम 
और वो भी ऐसे जैसे माली ने फूल चुने हो हलके हलके !

धूमिल 
जब जब मैंने तुम्हे पढ़ा है मैंने हवा को पाया हैं 
और उन हवा में पाए हैं आग के गोले जो फेफड़ो को जलाते है 
उन हवा में पाए हैं भूखे बच्चे जो अंतडियो को रुलाते है 
उन हवा में पाया है कोई गाँव अनजाना जो चीख चीख कर किले को घेर रहा है 
किसी अछूते कुंए से सींचकर आई औस की बुँदे भी पायी हैं मैंने उन हवा में !

धूमिल, जब जब मैंने तुम्हे पढ़ा है 
पता चला है की मुझमे कितने खंडहर वीरान पड़े हैं 
पता चला हैं की उन खंडहरों में किसके किसके कितने मुर्दे गड़े पड़े हैं 
मैं उन खंडहरों में जाकर सबको उनके नाम से बुला आता हूँ 
सारे गड़े मुर्दों को उठा उठाकर उनकी फोज़ बनाता हूँ 
जब जब मैंने तुम्हे पढ़ा है 
खुद को 
उस मुर्दों की फोज़ के साथ उस सड़क पर पाया है 
जोकि संसद तक जाती है ! 

- मेहुल मंगुबहन, २२ सितम्बर २०१५ 


Friday, August 28, 2015

पराजित होते सत्य

हाथ-पाँव कट चुके हैं 
अधखुली आँखे देख रही है इधर उधर 
रकत से लतपत शरीर अब नहीं रहा लड़ने के क़ाबिल
दिशाए जय घोष से गूँज रही हैं 
रक्तरंजित नदी बह रही है उफान से 
उस पार पड़े सारे सत्य 
पराजित होने के आखरी पल में देख रहे हैं इक नज़र इधरउधर  
देख रहे है शायद इस पार मेरी और 
इस पार मैं अपनी पूँछ टांगो में दबाए 
पराजित होते सभी सत्य को देख रहा हूँ 
बेबस 
लाचार 
दृष्टिहीन 
गौरवविहीन !
पराजित होते सत्य की 
अधखुली आँखों से आँख मिलाने से डरता हूँ मैँ 
दूर आसमाँ में देखर सोचता हूँ 
प्राथना करता हूँ 
जल्दी आ जाए चिल-कौवे 
या आ जाए वो सारे देवताः जिनको मैंने और मेरी पुरखो ने पूजा है 
आँखे कभी खुलती, कभी बँध होती दिख रही है चोरनजर से 
होले होले चलती उनकी धड़कनो का भास हो रहा है 
हाथ सिर्फ दो है मेरे पास 
अब आँखे मुंदु या कान ?
मैं बुत बन जाना चाहता हूँ 
जिसे सत्य के पराजित होने से 
असत्य के जय घोष से कोई सरोकार न हो !

- मेहुल मंगुबहन, २४ ऑगस्ट २०१५, अहमदाबाद 

Monday, July 20, 2015

गर मैं सिर्फ मजदूर होता

गर मैं सिर्फ मजदूर होता
मेरे बाप की तरह
मुआफ़ी मांग लेता
सर झुका लेता
आँख में भड़के लावा को
तुरंत पलट देता पानी में
गिड़गिड़ा लेता कि
गलती हो गई सरकार
माफ़ कर दे माईबाप
आगे से न आँख ऊपर होगी
नाही हाथ पैर कभी निचे
आपकी दिहाड़ी ही बड़ा उपकार हैं
आपको सब सरोकार है 
गर मैं सिर्फ मजदूर होता
तो फ़िक्र करता की
रोटी से स्लेट तक
उसकी चुनरी से मेरी कमीज तक
जिंदगी से जो भी नजदीकियाँ
वह सब आपकी दी हुयी मजदूरिया है !
गर में सिर्फ मजदूर होता तो
आपके कहे पर कूद जाता कुँए में
घूस जाता गटर में
आपकी लाठी बन बरस पड़ता किसी पर भी
ठीक मेरे बाप की तरह
या फिर मेरे बाप के बाप की तरह
या मेरी उन पुरखो तरह
जिनकी ज़ुबाने आपकी हां में हां करते
हिमालय सी बर्फ हो गई
पर मैं सिर्फ मजदूर नहीं हूँ न मालिक
थकावट के बावजूद मुझे सूझते है गीत
मुझे कविताओ के सपनें आते हैं
अच्छे लगते है मुझे बच्चन-मिथुनदा के डायलॉग्स
बड़ा खुश हो जाता हूँ जब वो गरीब को लूंटनेवाले गुंडो को पीटते है !
लोग कहते है मैं कलाकार हूँ
पता नहीं …शायद
हाँ लेकिन यह सच हैं
मुझे थकावट के बावजूद सूझते है गीत
सपनों में आती है कविताऍ
टुटा ही सही आइना रोज देखता हूँ मैं
रात तारो को देखकर गिनता हूँ मजदूरी
मुझे पता लग गया हैं
में सिर्फ मजदूर नहीं हूँ
अब बस यकीं होने की देर हैं !

- मेहुल मंगुबहन, १२ जून २०१५, अहमदाबाद

Friday, May 8, 2015

बस यूँही

आँखों में वैश्याए रहती है 
और जुबान में भड़वे 
जो बेच सकते है मुझे 
किसी और हसरतभरी आँखों को 
मुझसे बड़े किसी और भड़वे को 
क्यूंकि वो जानते है कोडी से कुतुबमीनार तक जिस्म की कीमत !
जिस्म ही बाजार है 
जिस्म ही खरीदार है 
नल के पानी से लेकर सुबह की चाय 
और रात के सस्ते दारु तक सबका 
जिस्म से सरोकार है !
किसी भद्दी चमड़ी को छू लेना 
आसमान छू लेने के बरोबर भले न गिना जाता हो 
में फिरभी कहता हु यह दुनिया एक वैश्यालय है 
जहाँ भूख के अलावा न कुछ पैदा होता है 
न मिटता है 
सरकारी रोड जैसी हवस बिना कोई आवाज़ उठाए पड़ी रहती है चुपचाप 
अपने अपने खड्डों के साथ 
जिस पर मेकअप की तरह फिरता रहता है बुलडोज़र आतेजाते 
ताकि अमर रह सके हमारा सौंदर्यबोध !
चहरे बदलते रहते है 
बदलती रहती है तोंद और निकर की साइज़ 
और काली मटमैली रोड यूँही पड़ी रहती है खामोश 
कुत्तो बिल्लो कीड़ो-मकोड़ो से लतपत !
सच कहूँ तो सिर्फ मै नहीं 
हर सख्श खुद बिकता है - खरीदता है 
करता रहता है अपने हिस्से की भड़वाई 
बेचता रहता है अपने ताबे का जिस्म !
चाहे ठुकाई हो या किसी ठेके पर मजदूरी
हर इंसान पहले पैदायशी मजदूर है 
और सारी दुनिया एक रेडलाइट एरिआ 
हम इसे जिंदगी समझ लेते है बस यूँही !

- मेहुल मंगुबहन, ६ अप्रैल २०१५, अहमदाबाद 

Saturday, January 31, 2015

ઢાંકણું

તમ ગમ્મે એ ધારતા હોવ
પણ હું તમન કવ ક માણહ હૂં સ !
માણહ નહિ બે હાથ ન બે પગ
માણહ નહિ બે ઓસ્યો ન એક ભોડુ
માણહ તો હારો બોઈલરનું ઢાંકણું સ
મઇ ભડભડ ન બાર બધુય બંધ.
કોલસા ઝીકાયે જાય ન કારખાનું હેડ્યા કર સડસડાટ
વાખેલા ઢાંકણાની મઇ !
બીજાનું તો હૂં કવ મુ ?
હાળો મુય ઢાંકણું જ સુ ન !
મન તો ઘણુય થાય ક એક બીડી ખેંચીન હેંડવા માંડું ઝાંપા બાર્ય
પણ ઘોડીનું ઢાંકણું ખુલ જ નઈ
હામે દેખાય ગેલ્સપ્પો લખચોરાશી જેવો ઝાંપો
પગમાં જામ્યા કર થર રખ્યાના
માથે ઉડ્યા કર ધુમાડો કાળોમેશ
પાલી બદલાય
ઢાંકણું ઘડીક ખુલ ન પાછુ થઇ જાય સજડબમ
પસી એમ થાય ક
કોક દન ડબલ* મ હોઉં ન બોઈલર ફાટ તો ચેવી મજા પડઅ !
મુયા મર બે ચાર
હાળુ ઢાંકણું તો તૂટઅ ધડામ !


- મેહુલ મંગુબહેન, 28 જાન્યુઆરી 2015
( * 
ડબલ : સળંગ બીજી પાળી માટે કારખાનામાં વપરાતો શબ્દ )