Saturday, June 7, 2014

द्रौपदी २ : चीरहरण से पूर्व

जब दुर्योधन ने कहा जाओ दुःशाशन ले आओ द्रौपदी 
राजसभा में मच गई खलबली 
दास बने अर्जुन को अचानक याद आई अपनी मधुरजनी
मन हुआ जाकर पहले बड़े भाई का गला दबा दे 
पर फिर ध्यान आया पांचो के बराबरी के हिस्से की डील पर !
नजरे नीची गड़ाए कालीन की नक्शी देख रहे थे युधिष्ठिर 
एक तो तनमन में उमड़ रही है लम्बी शंतरंज की थकान   
और फिर ऊपर से यह … क्या तमाशा !
हम तो वैसे भी भोग भोगकर थक चुके थे 
अब वो तुम्हारी है, जो करना था कर लेना था आराम से ! 
जब दुर्योधन ने कहा जाओ दुःशाशन ले आओ द्रौपदी 
उसे रोकना तो दूर कोई भी उठ खड़ा भी हुआ न अपनी जगह से !
एक लम्बे अंतराल के बाद अचानक धृतराष्ट्र को याद आई अपनी आँखे 
उफ्फ यह दृष्टिहीनता इससे पूर्व इतनी कठोर कभी न थी,
मेरे पुत्र संसार की सर्वाधिक सुन्दर स्त्री को जीते है
और में बेबस उसे एक नजर देख भी न पाउँगा ? छट !
विकर्ण के अलावा सारे कौरव का एक हाथ जांघ सहलाने लगा  
और दूजा हाथ था वहां जहाँ उनकी असली खुजली थी !
भीष्म अपनी गंवाई जवानी की सोच में डूब गए, 
द्रोण, कृपाचार्य रह गए हक्केबक्के !
जब वो उसे ले आए तब हमें क्या करना चाहिए ?
क्या हम भी बाकी दरबारीओ की तरह उसका सौंदर्यपान करे ?
हा हा क्यों नहीं ? आखिर राजऋषि है हम ! 
अधिकार तो सब है हमें पर धर्म ?
दोनो ने एकदूजे को झाँका, पल भर में किया फैसला 
और नजरे गड दी दुःशाशन के बढ़ते कदम पर !
जब दुर्योधन ने कहा जाओ दुःशाशन ले आओ द्रौपदी … 
सारे सेवक को छूट गया दुविधा का पसीना 
होने लगी खुसर पुसर 
आखिर राजबहु है, कहीं देखते पकडे गए तो ?
और देखे बिना भी रह पाएंगे तो कैसे !
जब दुर्योधन ने कहा जाओ दुःशाशन ले आओ द्रौपदी 
हस्तिनापुर की राजसभा में बढ़ने लगी संख्या
आँखे मुंदी नहीं बल्कि दो से चार होने लगी
प्रवेश नहीं था वो भी आ गए दरारों से झांकने
दुःशाशन के निकलते ही फ़ैल गई खबर !
मार्ग पर जमा होने लगी भीड़,
रोज दाव पर लगती 
रोज किसी की दासी बनती 
हस्तिनापुर की सारी स्त्रियां सुन्न हो गई पल भर !
बीच बीच में आई ठहाकों की आवाझे
जो हररोज हमारे यहाँ होता है वह आज राजसभा में होगा !
हा हा हा.… आखिर शुरू तो उन्होंने ही किया था न !
आज शायद राजा को पता चलेगा 
की रोज रोज हस्तिनापुर में 
हर गली हर चोकठ पर 
द्रौपदीओ के साथ होता है क्या क्या !
जब दुर्योधन ने कहा जाओ दुःशाशन ले आओ द्रौपदी … 
अचानक से पूरी राजसभा हो गई वस्त्रहीन !

- मेहुल मंगुबहन, ०३ / ०६ / २०१४ अहमदाबाद 

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