Wednesday, June 18, 2014

नदी से नल की और

दूर किसी पहाड़ से निकली हुई 
खेलती झूमती गुनगुनाती नदी 
सेंकडो गाँवों को पार करते  
किसी बाँध से प्लांट 
फिर प्लांट से पाइप 
और फिर पाइप से 
शहर के मेरे इस घर के नल में 
आकर बहती है तब 
सचमुच बड़ा अच्छा लगता है !
मानो नल से पानी नहीं खुशिया बहती हो 
तपाक से प्यास बुझाता हु में अपनी 
उस अनजान नदी का पानी घुल जाता है मुझ में 
एक संतृप्त आनंद में खो जाता हु में 
फिर ख्याल आता है जेहन में 
जिसका पानी इतना मीठा है 
वो नदी भी यकीकन सुन्दर होगी !
कितने खुशनसीब होंगे वो लोग 
जो उसकी गोदी में रहते होंगे,
गाते होंगे, खेलते होंगे, नाचते होंगे !
इस जल की तरह शुभ्र पारदर्शी 
मीठे मधुर सरल होंगे वो लोग यकीकन !
यह प्यास तृप्त होने का आनंद है,
या अधिक मिठास की लालसा ?
पता नहीं पर 
यह सोचने से पहले ही में घूस जाता हु नल में 
फिर तो नल से प्लांट 
प्लांट से बाँध 
बाँध से नदी की और बहता हु !
बहता जाता हु … बहता जाता हु !
जैसे जैसे आगे जाता हु लोग मुझे घूरते नज़र आते है 
सोचता हु क्या में उनसे इतना अलग हु ?
पर यह सब तो मेरे जैसे ही है ! तो ?
क्यों बार बार वो देख रहे मेरी और इस तरह ?
मेरे नल को मीठा जल देनेवाली 
इस नदी की गोदी में पले-बड़े लोग 
इक नज़र मेरी तरह हँसते भी नहीं है, क्यूँ ?
चहरे इतने मायूस क्यों दीखते है इनके ?
हो सकता है इस नदी के जल का नशा हो कोई,
पता नहीं, में बस में बहता जाता हु नल से नदी तक 
सोचता जाता हूँ  …और
किसी रिक्त स्थान जैसे लोग भी 
गुजरते रहते है आँखों के सामने से खामोश ! 
अरे कुछ तो बोलो 
बेजुबान हो क्या ?
मुझको ही नहीं, मेरे बड़े शहर को 
शहद सा मीठा जल देनेवाली 
अपनी इस नदी के बारे में कुछ तो बताओ मुझे !
अरे अपने बारे में ही कुछ, 
कोई जवाब नहीं दे रहा 
नल से नदी की और के सफर में 
दोनों छौर सिर्फ सन्नाटे घेरते जाते है मुझे !
ऐसा लगता है जैसे किसी ख़ामोशी ने बाँध लिए है मुझे
कुछ बच्चे किनारे झाड़िओ छुपे है 
कुछ बूढ़े पत्थर पर बैठ मछलिओं को ऐसे ताक रहे है 
मानो आँखों से ही शिकार कर लेंगे उसका !
पर अजीब है , ऐसा कुछ नहीं करते वह !
अरे आओ, शिकार करो मछली का 
इसी मीठी नदी की मछली भी बेहद मीठी होगी
चिल्लाता हु में …
शायद वो नहीं सुनते है आवाझ मेरी 
या फिर उनको यकीं नहीं है किसी आवाझ पर भी !
इसी मीठी नदी के तट पर लोग 
कितने कड़वे कड़वे है, सोचता हु में !
फिर चिल्लाता हु में 
अरे कुछ तो बोलो 
कोई तो बोलो 
कितनी दूर से आया हु मै 
तुमको और तुम्हारी इस नदी को मिलने !
चीख पड़ता हु मै 
नदी को दोनों तटों पर छाये 
गहरे सन्नाटे को चीरती चीख़ गूँज बन  
लौट कर टकराती है मुझको ही 
आँख शायद अब रोने को है 
तभी, दबी दबी सी आवाझे आती है गुमनाम 
तुम जिसे नदी कहते हो वह घर था हमारा  
जिसे तुम बाँध कहते हो वहां झूमते थे कभी  
हमारे खेत, परिंदे, जानवर, बच्चे - सब कुछ !
एक धक्का सा लगता है मुझे 
सुनकर न जाने क्यों डर जाता हूँ मै !
वापस मुड़ता हु 
नदी से बाँध 
बाँध से प्लांट 
प्लांट से नल की और !
रास्ते भर मुड़मुड़कर पीछे देखता हु 
कंही वो लोग आ तो नहीं रहे पीछे  
नदी से नल की और !

- मेहुल मंगुबहन, १७ जून २०१४, अहमदाबाद 

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