उनकी घडी जूठी है,
शमशेर की नोक जेसे उसके काँटे वकत दिखाते नहीं, सिर्फ घुमाते है !उनकी कलाई पे बंधी घडीने कैद कर रखा है चौराहे का पूरा टावर,
मेरा बिस्तर, एक फटी रजाई, बेरंग दीखते चप्पल,
रोजगार की कतार, हाथ की लकीरे, पेरो की ताकत,
जंगल के पेड़, समंदर की लहरे,
न जाने क्या क्या कैद रखा है कमबख्त घडीने !
वो मोड़ सकते है घडी के नुकीले काँटे किसी भी ओर,
अपने पालतू वक्त को जब चाहे तब छोड़ सकते है खुला हर दिशा में !
फिर वक्त वक्त न रह कर बन जाता है बहूरुपिया !
बहूरुपिया वक्त घुल जाता है बस्ती में,
बस जाता है खून मै !
आती-जाती औरतो को छेड़ता हुआ,
जवान लोंडो की कमर तोड़ता हुआ,
हवा का भेष लेकर मिल जाता है साँस में !
सब को अलग अलग रूप दिखाता है वक्त !
दूर दूर तक सच का नामोनिशान न हो फिर भी
उनकी घडी में वक्त सतयुग है !
सच की शिनाख्त होते ही वो कह देते है यह कलयुग है !
जैसे कोई ग्वाला लठ से भेड़ बकरिया चराता है
ठीक वेसे घडी के काँटों से वो हांकते रहते है हमें !
सर झुका के हम सोचते रहते है की कभी हमारा वक्त भी आएगा ....
जबकि हमारा वक्त तो पहले से ही कैद है उनकी घडी में !
हम नामुराद, नाअकल, बेवकूफ की तरह तकते रहते घडी को !
हम भूल चुके है वक्त की पहचान,
हम, जो कभी वक्त को तारो के आने-जाने से जान जाते थे,
हवा की लहरों से भी पहचान जाते थे वक्त,
जंगल में पेड़ के पत्तो से सूंघ लेते थे वक्त,
समन्दर के पानी से समझ जाते थे वक्त,
वक्त का वो रंग रूप हम भूल चुके है
और फंस चुके है उनके बहुरूपिए वक्त की मायाजाल में !
यह जानते हुए, की सही वक्त देखना इतना मुश्किल भी नहीं !
सही वक्त आज भी दिख सकता है फुटपाथो पे,
सहमी सी लगती किसी भी लड़की की आँख में,
दिन दोगुने रात चोगुने दुबले हो रहे बच्चो की हड्डियो में,
बम के धमाको की गंध में,
किसी वेश्या की झुर्रियो में,
अस्पतालों में, दुकानों में
हर चीज की कतारों में,
कभी बन न पाते मकानों में,
खून से झगमगाती खानों में,
डर से सूखते जा रहे जंगलो में
दिख सकता है वक्त का सही रूप, वक्त के सही माने !
उनकी घडी जूठी है यारो,
उसके झांसे में न आना,
आते जाते रस्ते में कोई अगर पूछे वक्त ...
तो कह देना
अब वक्त हुआ है लड़ने का !
मेहुल मकवाना, २२ फरवरी २ ० १ ३, अहमदाबाद