Monday, November 11, 2013

जाओ मेरी कविताए ....


जाओ मेरी कविताए कही और जाओ
मेरे जेहन में ख्याल बनके न मँडराव
दूर हो जाओ मेरी नजरो से
आतेजाते फुटपाथों से न तका करो मुझको
अधखुली खिड़किओ से न झाँका करो मुझे
जाओ मेरी कविताए कहीं और जाओ
मेरे पास अब नहीं कोई आकार जिसमे ढाल सकू तुम्हे
नहीं कोई जगह जहाँ में रख पाऊ तुम्हे महफूज
डगमगा रहा है मेरा अहिंसक विश्वास
बड़ी मुश्किल से पिस्टल बनती दिखती कलम
तुम्हारे आते ही नम सी हो जाती है
और फिर से में खुद को सँभालने के बजाय
तुम्हे सँभालने के बारे में सोचने लगता हु !
कल तक सब ठीक था
दो-चार कोने थे अपने घर के जहाँ तुम्हे रख पाता था सुरक्षित
कुछ दोस्तों के ठिकाने भी कल तक थे बेखोफ
पर आज यह आलम है कि
न तो मेरे घर के वो कोने बचे है
न तो दोस्तों के गुप्त ठिकानो के छजे !
सब कुछ कुचलकर भाग रहा समय आखो से ओज़ल होता जा रहा है !
सारे नीतिनियम बन चुके है राजमार्ग के साइन बोर्ड !
जिसपर सवार होकर आती थी तुम ख्यालो में
वो सारे सिद्धांत अब फुटपाथों पे चाय-साबुन-बरतन बेच रहे है, कविता !
सारी भावनाए भेड़ बनकर रेंग रही है
या कतार-बंध-कतार सर झुकाए चल रही है चुपचाप
तभी तो कह रहा हु
चली जाओ कही और
जाओ वहाँ जहाँ लब्जः अब्ब भी उम्मीद के काबिल गिने जाते हो
मेरे पास कोई नहीं है महफूज़ जगह
और सच कहु तो इस मुल्क में दूर दूर तक कोई जगह महफूज़ बची ही नहीं है !
मुमकिन है एकाद कोना कही मिल जाए
पर अब उस एक कोने को ढूंढने की न चाह बची है न सब्र
इतना कोहराम मचा है यहाँ की में अब और कुछ सोच नहीं सकता,
जितनी जल्दी हो सके इस कलम को पिस्टल बना देने के अलावा!
जाओ मेरी कविताए कही और जाओ
यकीं करो मेरा जब युद्धः पूरा हो जाएगा
आज नहीं तो कल में तुम्हे कहींन कही से
दुनिआ के किसी भी कोने से
ढूंढ लूंगा वापिस
और पिस्टल फिर से पेन बन जायेगा !
बस अब जाओ तुम
जाओ मेरी कविताए …

- मेहुल मकवाना,  १० नवम्बर २०१३, अहमदाबाद  

Monday, September 2, 2013

ભૂતિયા અને ચુડેલિયા કવિઓ માટેની ગઝલ


બધી બાજુએથી મેં જોઈ, તપાસી, પારખી છે.
સાચું કે' દોસ્ત, તારી આ ગઝલ કોણે લખી છે ?

તારી લાચારીમાં તો નશો ય નથી ''મરીઝ'' સમ,
નર્યા વાટકી વહેવારના દાળશાકની ગંધ ભરી છે.

અહો ! ધુમાડાના ગોટેગોટ ઉડી આવ્યા ક્યાંથી ?
કરો તપાસ આ સાંભળી ક્યાં, કોની, કેવી બળી છે !

સબૂર, ઓકેલું બધુયે કાગળ સમેત ગળવું પડશે,
ગાફેલ ન રહેજે  કે મેં અમસ્તી સળી કરી છે.

આ ઇનામો, અકરામો ને વાહવાહની લ્હાયમાં,
વ્હાલી ગુજરાતી કવિતા કયાંક રખડી પડી છે.

- મેહુલ મકવાણા, ૧૯/ ૧ / ૨૦૧૨, અમદાવાદ

Thursday, May 2, 2013

भाड़ में जाए


भाड़ में जाए तुम्हारा देश और भाड़ में जाओ तुम भी !
क्यूंकि न तो हमें किसी देश की जरुरत थी न तुम्हारी !
बड़ी आसन थी जिन्दगी जब यह जमीं मुल्क न थी ! 
दिनभर चलते रहते पांव रात होते होते अपने आप घर पहुँच जाते थे !
और हम जंगल में मोसम को ओढ़कर 
ऐसे सो जाते थे की शेर की दहाड़ भी लोरी सुनाई देती थी !
तब नदी सरकार की रखेल नहीं थी 
तब जमीं खोद्नेका मतलब सिर्फ बिज डालने से था !
तब लड़ना आसान था 
चार कदम चलने पर बदल जाते थे सारे कायदे - कानून !
तुमने हमें भाई कहकर सारे कानून एक करके बना दिया अखंड राष्ट्र का साम्राज्य !
भाड़ जाए तुम्हारा यह अखंड राष्ट्र का साम्राज्य 
और इसके सारे कानून जिसने नींद में ही हमारे पांव के निचे से जमीं छीन ली !
भाड़ में जाए तुम्हारा लोकतंत्र जिसके आकाश ने हमारे जंगल को आग लगा दी !
महाभारत से यूनियन ऑफ़ इंडिया तक यही होता रहा है !
भाड़ में जाये तुम्हारी सारी संस्कृति जिसकी आड़ में तुम 
मसलते रहे हमारे बेटो को !
नोचते रहे हमारी औरतो को !
भाड़ में जाए हकीकतो को सजाकर खूबसूरत बनानेवाली तुम्हारी सारी कलाए !
भाड़ में जाए साँस को भी धंधा बनानेवाला तुम्हारा स्टोक मार्केट !
भाड़ में जाए प्रधानमंत्री और उसकी कुर्सी 
भाड़ में जाए राष्ट्रपति और उसका प्रोटोकोल !
भाड़ में जाए न्याय के नाम पर धंधा करती न्यायपालिका !
भाड़ में जाए संसद और उस पर लगा राष्ट्रध्वज भी !
हमने बहोत कोशिश की तुम्हारी सारी बाते सच मानने की !
एक बहेतर कल के सपने में हम भूल गए हम हमारा सारा इतिहास 
लेकिन तुमने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा !
तुमने हमारे कंधे पर बदूक रख हमारी पुरखो को मरवाया 
और अब हमारी आनेवाली नस्लों की भी नसबंदी चाहते हो 
ताकि  चलता रहे तुम्हारा राज !
पर में कहता हु की भाड़ में जाए तुम्हारा राज !
अब जब गंवाने के लिए जान के अलावा कुछ नहीं बचा !
अब हम तुम्हारे कारखानों की मशीनों पर पेड़ लगायेंगे !
कोशिश करेंगे की उसकी दीवार में जड़ दें तुम्हे !
अब हम तुम्हारे स्टोक मार्किट के सांड की दूम पकड़कर उसे गोल गोल घुमाएंगे 
इतना घुमाएँगे की हवा से फटते फटते हो जायेगा गुम 
फिर हाथ में रह गई उसकी दूम से हम हंटर बनायेगे 
और हांकेंगे तुम्हे 
ठीक उसी तरह जिस तरह तुम हमें हांकते आये हो !
अब हम संसद के बीचोबीच जाकर हगेंगे और राष्ट्रपति भवन में पेशाब करेंगे  
और जोर जोर से चिल्लायेंगे 
भाड़ में जाओ तुम, 
भाड़ में जाये तुम्हारा देश, 
भाड़ में जाये सबकुछ !

- मेहुल मकवाना, २३ अप्रैल २०१३ 

Sunday, March 17, 2013

સિપાહીની માનું ગીત



રણઘેલુડો થા'મા ડીચરા, રણઘેલુડો થા'મા. 

જુધ્ધ નઈ આ ખળાના ભાગનું, ખમ્મા !
જુધ્ધ નઈ આ ધણની હાકનું, ખમ્મા !
જુધ્ધ નઈ આ કુંવાસીની લાજનું, ખમ્મા !
જુધ્ધ નઈ આ વડવાની શાખનું, ખમ્મા !

આ તો રાજનો રમતો ઘોડલો, રાશ્ય એની ઝાલવા જા'મા.
રણઘેલુડો થા'મા ડીચરા, રણઘેલુડો થા'મા.

પોર'દી તારા ઘાવ ભર્યાનું કળ હજીયે મારી આંગળીએ, 
દીકરી તારી ભઈ હજુ તો માંડ ચાલતા શીખી ભાખડીયે.
સરહદયું તો કાલ ભુંહાઈ જાશે કર ઝાઝી ચીન્ત્યા'મા.
રણઘેલુડો થા'મા ડીચરા, રણઘેલુડો થા'મા.

આ ખડગ મેલી હળ હાંકેશ તોય તું મારો વીર રેવાનો,
મોભારે ચડ્યું દેવું વીરા વાણિયો હવે નઈ ધીરવાનો,
આ એકની હાટુ રાંક રેયતનું લોહી ખેડવા જા'મા.
રણઘેલુડો થા'મા ડીચરા, રણઘેલુડો થા'મા.

જુધ્ધમાં જેનું માથું વાઢીશ એ ય કોકનો વીર હશે ભઈ,
એની માવડીના યે મારી જેમ ફાટેલા ચીર હશે ભઈ,
તું આવે જીતી જુધ્ધ તોયે થાશે હરખ નઈ પોંખવા'મા.

રણઘેલુડો થા'મા ડીચરા, રણઘેલુડો થા'મા.
 

- મેહુલ મકવાણા, 25 ફેબ્રુઆરી, 2013 

Thursday, March 7, 2013

જીવન વટાવ્યે રાખે


જીવે છે બે ચાર, બાકીના ફરજ નિભાવ્યે રાખે,
ગણી ટાણા સુખ દુખને, દિવસ ટૂંકાવ્યે રાખે.

એવા તે શા પાપ તારા કે કદી ન આવે સામે ?
મંદિર, મસ્જીદ દેવળમાં તું શું સંતાયે રાખે ?

હોય જાણ મોડો આવીશ ને જમીશ તો નઈ જ,
મા છે એ માને નહિ થાળી ઢાંકેલી છતાંયે રાખે.

એક હું છું કે યાદ રાખું ન એકેય ગુનાહ એના, 
એ પણ મારી જાણ બહાર ખુદ પસ્તાયે રાખે.

બેન્કિંગ સેક્ટરની તેજી સવારે છાપું બોલે ને, 
બે રૂપરડીમાં લોકો અહી જીવન વટાવ્યે રાખે.
- મેહુલ મકવાણા, ૧૨ / ૧૨ / ૨૦૧૧ , અમદાવાદ 

Saturday, March 2, 2013

२८ फरवरी २० १ ३


सच कहु तो में कुछ नहीं चाहता हु 
न वो उजड़ी दुकाँ सुधारना चाहता हु 
न ही जख्मो पर कोई पट्टी लगाना चाहता हु !
जल गए घरो के मलबो से अब तो धुंवा भी निकलना बंद हो चूका  
अब कब तक राख कुरेदू मै ?
कल जो फूट पड़ा था झरना रक्त का 
अब वो सेकड़ो झरनों से मिलता बन चूका है दरिया 
अब इतनी सहज है उसकी धार 
की मै कैसे बोलू इसीमे डूबी थी मेरी नाव !
गुजर चुके लोगो की तस्वीरों पर 
वक्त जमा रहा है बालू 
उसी नदी के किनारे से खिंची हुई !
चोराहे के टावर पे घडी वही है रुकी हुई !
अब न मै लड़ना चाहता हु 
न में न्याय पाना चाहता हु !
न कोई मुआबजा चाहता हु रक्तचाप का !
में कुछ नहीं चाहता हु,  
उस घडी को वापिस घुमाने के अलावा !
कोई आज समय को घुमा दे वापिस उस लम्हे तक 
जहाँ से बात शुरू हुई थी !
वो गाड़ी वक्त से निकले, 
वक्त पर स्टेशन आए,
हँसते-खेलते लोग 
उतर जाए -चढ़ जाए !
हरी झंडी दीखते ही आगे चलती बने गाड़ी !
वो गाड़ी, जो स्टेशन को लांधकर 
लावा बन कर फ़ैल गई थी चारो दिशा में 
मै अब बस उस गाड़ी को सही सलामत 
उसके घर तक छोड़ना चाहता हु !
मै अब और कुछ नहीं चाहता हु !

मेहुल मकवाना, १ मार्च २० १ ३ , अहमदाबाद 

Saturday, February 23, 2013

वक्त


उनकी घडी जूठी है, 
शमशेर की नोक जेसे उसके काँटे वकत दिखाते नहीं, सिर्फ घुमाते है !
उनकी कलाई पे बंधी घडीने कैद कर रखा है चौराहे का पूरा टावर,
मेरा बिस्तर, एक फटी रजाई, बेरंग दीखते चप्पल,
रोजगार की कतार, हाथ की लकीरे, पेरो की ताकत,
जंगल के पेड़, समंदर की लहरे, 
न जाने क्या क्या कैद रखा है कमबख्त घडीने !
वो मोड़ सकते है घडी के नुकीले काँटे किसी भी ओर,  
अपने पालतू वक्त को जब चाहे तब छोड़ सकते है खुला हर दिशा में !
फिर वक्त वक्त न रह कर बन जाता है बहूरुपिया !
बहूरुपिया वक्त घुल जाता है बस्ती में,
बस जाता है खून मै !

आती-जाती औरतो को छेड़ता हुआ,
जवान लोंडो की कमर तोड़ता हुआ,
हवा का भेष लेकर मिल जाता है साँस में !
सब को अलग अलग रूप दिखाता है वक्त !
दूर दूर तक सच का नामोनिशान न हो फिर भी 
उनकी घडी में वक्त सतयुग है !
सच की शिनाख्त होते ही वो कह देते है यह कलयुग है !

जैसे कोई ग्वाला लठ से भेड़ बकरिया चराता है 
ठीक वेसे घडी के काँटों से वो हांकते रहते है हमें !
सर झुका के हम सोचते रहते है की कभी हमारा वक्त भी आएगा ....
जबकि हमारा वक्त तो पहले से ही कैद है उनकी घडी में !
हम नामुराद, नाअकल, बेवकूफ की तरह तकते रहते घडी को !
हम भूल चुके है वक्त की पहचान,
हम, जो कभी वक्त को तारो के आने-जाने से जान जाते थे,
हवा की लहरों से भी पहचान जाते थे वक्त,
जंगल में पेड़ के पत्तो से सूंघ लेते थे वक्त,
समन्दर के पानी से समझ जाते थे वक्त,
वक्त का वो रंग रूप हम भूल चुके है 
और फंस चुके है उनके बहुरूपिए वक्त की मायाजाल में ! 
यह जानते हुए, की सही वक्त देखना इतना मुश्किल भी नहीं !

सही वक्त आज भी दिख सकता है फुटपाथो पे,
सहमी सी लगती किसी भी लड़की की आँख में,
दिन दोगुने रात चोगुने दुबले हो रहे बच्चो की हड्डियो में,
बम के धमाको की गंध में,
किसी वेश्या की झुर्रियो में,
अस्पतालों में, दुकानों में
हर चीज की कतारों में, 
कभी बन न पाते मकानों में, 
खून से झगमगाती खानों में,
डर से सूखते जा रहे जंगलो में
दिख सकता है वक्त का सही रूप, वक्त के सही माने !

उनकी घडी जूठी है यारो, 
उसके झांसे में न आना, 
आते जाते रस्ते में कोई अगर पूछे वक्त ...
तो कह देना 
अब वक्त हुआ है लड़ने का !

मेहुल मकवाना, २२ फरवरी २ ० १ ३, अहमदाबाद  

Thursday, February 7, 2013

कलम की आग


कलम की आग भी कोई आग है ?
मौसम बदलते ही बर्फ बन जाती है कमीनी !
न घर का चूल्हा जला पाती है 
न चोराहे पर अलाव लगा पाती है !
कलम की आग भी कोई आग है ?

भेसे के आगे बजती बिन की तरह, 
कलम एक राग बनके रह जाती है, 
खुद ही आलापे - खुद ही सुने ! 
सर पर जब बन्दुक तनी हो लब्झ काम नहीं आते,
सारे अक्षर - सार ग्यान हो जाता है बेकार !
लिखते लिखते दांतों में कलम चबाने का शौक भी हवा हो जाता है 

चाहे लाख कविताए लिख दे पिछडो की प्यास पर,
कलम कतई नहीं बन सकती साफ़ पानी का वो गिलास जो उसकी जरुरत है !
कलम से बेशक बन सकता है नरम रोटी का चित्र
पर कलम खा नहीं सकता कोई !
पेट नहीं भरता कलम से !

भर दे पूरी लायब्रेर्री किताबो से,
चाहे कविताओ की लाइन लगा दे,
नए नाटक-कहानिओ का डाल दे डेरा,
क्या हम रोक पायेंगे उस बुलडोज़र को
जो निकला है पूरी बस्ती कुचलने !
कलम बस्ती की तरह होती है !
और बस्ती में बड़ी मुश्किल से जलते है चूल्हे !
जैसे बस्ती का होना कोई मायने नहीं रखता
कलम की आग भी कोई मायने नहीं रखती !
क्यूंकि जब सर पर बदूक तनती है,
जब लाठिया बरसती है,
जब अदालतों से, कचहरियो से आते है उलटेसीधे पैगाम,
कविताए सुन्न हो जाती है,
सारा ग्यान दर्शन रह जाता है धरा, 
और आखिर खून फ़ैलता जाता है कागज पर ! 

- मेहुल मकवाना, 7 फरवरी, अहमदाबाद 

Monday, February 4, 2013

कोमल ग़ज़ल



वो इस तरह फूलो में बहार ढूंढते है, 
मानो अखबार में खास इश्तिहार ढूंढते है !

जिस पर तुम्हारे ख्याल का साया न हो, 
इस जिन्दगी में हम ऐसा करार ढूंढते है !

न ग़ज़ल के हो मोहताज, न मय के साथी,
हम अपने आप में वो खुमार ढूंढते है !

सारा शहर सन्नाटे से भरा पड़ा है यहाँ ,
और एक हम है की पुकार ढूंढते है !

हर एक चीज मिल जाती है दुकानों में,
सिवा एक जिसे हम बेसुमार ढूंढते है ! 

पलक झपकने जितना भी शक हो न कभी,
हम तेरी आँखों में वो इख्तियार ढूंढते है !

हर हाथ मे पत्थर हेरानी की बात नहीं,
लोग यहाँ पत्थरो मे परवरदिगार ढूंढते है !

- मेहुल मकवाना,  22 जनवरी 2013, वेजलपुर 

Thursday, January 24, 2013

लाशें



सुरंगे खुद चुकी है !
गाँव से गाँव के बिच,  
शहर से शहर के बिच,  
उडल दी है हवाओ ने सारी मिटटी !
हो चुकी है सबकी सिनख्त !
हर एक कब्र अब कब्र से जुड़ चुकी है,  
हर गाँव से हर शहर तक, 
हर शहर से हर मुल्क तक, 
हर मुल्क से हर जहाँ तक ! 

अब लाशें कब्र से बाहर आने को तैयार है 
अब लाशे सबकुछ फूंकने को बेताब है 
मशीनों से काटे दिए गए मजदूरों की लाशे,
फालतू जंग में शहीद हुए सिपहिओ की लाशें,
दिन दहाड़े जलाए गए 
और एक पर एक दफनाये गए दलितों की लाशें, 
बन के पत्तो की तरह झड चुके आदिवासिओ की लाशे ! 
जानी पहचानी और अनजानी भी, 
सब लाशे बाहर आने को तैयार है !

लाशें मिल चुकी है एकदूजे से, 
लाशें आ गई है नतीजे पे, 
अब धरती चीरकर लाशें फूटेगी 
फुट पड़ेगी बम बनकर लाशे नेताओ पर,
फुट पड़ेगी खू के हर विक्रेताओ पर, 
जिस की नीव में होगा लहू का दाग 
जिसकी भी बुनियाद होगा मुफ्त पसीना 
ऐसे हर शख्स पर, हर मकाँ पर टूट पड़ेगी लाशें !

लाशें अब बारूद बनकर बरसेगी, 
लाशें अब हिसाब को गर्जेगी, 
लाशें मागेगी अपने हिस्से की जमीं 
लाशें मागेगी आसमान अपने हिस्से का !
आखरी वक़त मुह में रखे गए पुराने सिक्के का मोल भी लाशें मागेगी !

लाशो से कोई बच न पायेगा, 
लाशो से कोई छिप न पायेगा, 
सुरंगे खुद चुकी है चारो तरफ से,   
बिना कोई वारंट, बिना कोई पर्ची 
लाशें अब कहीं से भी फुट पड़ेगी !

लाशे निकल चुकी है हर कब्रिस्ता से 
हर एक मुर्दाघर से चल पड़ी है लाशें,

हर आँगन पर गुहार लगाएगी,
हर दरवाजा खटखटाएगी,
राजमहल को आग लगाएगी,
सारे सेठो के सिर मुंडवाएगी 
कदम कदम आगे बढ़ रही लाशें अब वापिस कब्र में नहीं जायेगी, 
गर जायेगी तो न जाने कितनो की लाशें लेकर जायेगी !

- मेहुल मकवाना, 22 जनवरी 2013, वेजलपुर 


Saturday, January 12, 2013

युद्ध होगा



युद्ध होगा 
आज नहीं तो कल, 
कल नहीं तो परसों,  
परसों नहीं तो नरसो,
युद्ध होगा !

जब दोनों और से जनता की बेंड बजेगी ! 
तब जाकर सरहद पर सेकड़ो टेंक सजेगी !
फिर रोटी कपडा मकान भूलकर,  
सब पर सवार देश का भूत होगा !
युद्ध होगा !

शांति वार्ताए जब जब आगे बढती दिखेगी ! 
खू से खौलती नसे जब ढीली पड़ती दिखेगी ! 
क्यूँ है हाल हमारा ऐसा ?
उसका कही न कोई सुबूत होगा !
युद्ध होगा !

वो जब सोचेंगे तब होगा !
वो जब चाहेंगे तब होगा !
आज नहीं तो कल 
कल नहीं तो परसों 
परसों नहीं तो नरसों !
तुम चाहो या ना चाहो 
युद्ध जरुर होगा !

फिर बहते खून की खुश्बुओ का लगेगा उत्सव ! 
फिर लाशें जवानो की बन जायेगी बेलेट पेपर !
न कानो-कान खबर होगी किसीको, 
ना ही किसीको कुछ शक होगा !
युद्ध जरुर होगा !

- मेहुल मकवाना, 12 जनवरी 2013, अहमदबाद