अबके जब तिरंगेवाला दिन आएगा.....
बेवकूफ थे हम जो ढूंढते रहे जीवन के असली रंग तिरंगे में !
पेड़ के पत्तो सा हरा हरियाली का
उगते सूरज सा केसरी हमारी पुरखो के शोर्य का
नियत सा शुभ्र श्वेत अमन का !
हम बेवकुफो को क्या पता की सारे रंग एक दिन
बम्बई के समंदर की तरह काले मटमैले हो जायेंगे !
हम तो समजते रहे तिरंगे को शान
देश के होने या न होने से जिनकी लेनदेन नही एसे
हजारो गाँवो का भी सन्मान !
पन्द्रह अगस्त और छबीस जनवरी को स्कुल में बाँटी गई टॉफी सा मीठा
समजते रहे हम तिरंगे को !
हम बेवकुफो को क्या पता की एक दिन यह इतना कडवा भी लगेगा
की न झेल पाएंगे न थूक पायेंगे !
हम तो समजते थे तिरंगे को सुकून की चादर
जिसे ओढने जवान हँसते हँसते शहीद होते है !
हम बेवकुफो को क्या पता की यह चादर
इक दिन ऐसा खिलौना बन जायंगी
जिस पर हम न हस पाएंगे न रो पाएंगे !
आज के बाद जब तिरंगे का दिन आएगा
उसकी लहरों में यक़ीनन मंडराते गिद्ध दिखाई देंगे,
सारे रंग बेरंग दिखाई देंगे ,
ब्युगल की आवाज बन जाएगी चीख,
राष्ट्रगीत बन जायेगा सन्नाटा,
सारे माने बदल जायेंगे !
हो सकता है किसी काले झंडे को ही कहना पड़े तिरंगा !
अबके जब तिरंगेवाला दिन आएगा....
.... हाथ सलामी को बड़ी मुश्किल से उठ पायेगा !
- मेहुल मकवाना, 20 नवंबर 2012
(बाल ठाकरे को दिए गए तिरंगे के राष्ट्रिय सन्मान पर)