Monday, October 1, 2012

भूखा सूरज


देर रात की गहरी नींद में,
बस्ती के घने अँधेरे से बचकर 
बिना मेरी इजाजत के 
रेंगते कुत्तो को पीछे छोड़ता हुआ सूरज घुस जाता है मेरे पेट में
किसी लड़की के अनचाहे गर्भ की तरह !
फिर मटकों की आवाजे, पानी की ज़िक ज़िक..
बच्चो के जग जाने से पहले बीवी से बतियाने तीसरी शिफ्ट से जल्दी घर आया पढ़ोसी...
जिन्हें कभी गौर से देखा नहीं एसे परिंदों की आवाजे... जगाने लगती है मुझे !
गर्भ सा पेट में पड़ा सूरज अब शुरू करता है फैलना..
आँख मुंदने के लिए जिस हाथ को तकिया बनाया था वो आँख खुलते ही पेट पर पाता हु ! 
एक धक्का सा लगता है..सारे अंग सिकुड़ जाते दीखते है नाभि में..
दिन शुरू हुआ है 
सारी बस्ती में भागदौड़ एसे होती है जैसे उजियारे से डरते हो !
सूरज की गर्मी अब जोर पकड़ रही ..फ़ैल रहा है भूख का गर्भ !
दिन चढ़ते गुब्बारे सा फुलता जाता है सबका पेट ! 
चाय में बिस्कुट की तरह अब हंसी में नफरत..गुस्सा घुल रहा है !
हर कोई उखाड़ फेंकना चाहता है अपना अपना अनचाहा गर्भ 
पर कैसे ?
नाभि में से फूटनेवाले हर सपने को केद कर रखा है उस भूखे सूरज ने भीतर से ! 
कैसे करे आज़ाद उन सपनो को ?
एक दिन बात हो तो ठीक अब रोज रोज उस सूरज को हम क्या खिलाये ?
अबके जब मेरी रात की शिफ्ट होगी 
सारी थकावट भूलकर मै जगता रहूँगा !
पलभर भी नहीं सोऊंगा !
और अँधेरे में दबे पाँव आते सूरज को पेट में घुसने से पहले ही धर लूँगा रंगे हाथ !
कर दूंगा सारे सपने आज़ाद !

- मेहुल मकवाना, १ अक्तूबर २०१२, अहमदाबाद