Sunday, October 23, 2011

અટક ( સુધારા સહીત )

(સર્જક જયારે ઉત્સાહમાં સરી જાય કે પછી લય-પ્રાસના રવાડે ચડી ભાવનું ભાન ભૂલે ત્યારે ઘણીવાર સારું સર્જન થતાં થતાં રહી જતું હોય છે. એમાય તમે જો દલિત કે જનવાદી પરંપરાના નવોદિત સર્જક હો તો રાજકીય કે સેદ્ધાંતિક સમજણ દોષ ઉભો થવાનો ભય પણ ખરો. જાણીતા દલિત કવિ ડો.નીરવ પટેલના પ્રતિભાવ બાદ મારી આ કવિતામાં સુધારો શક્ય બન્યો છે . એ પહેલા કરતા વધુ બહેતર બની એવું લાગે છે એટલે એને નવી પોસ્ટ તરીકે જ મુકું છું. જૂની કવિતા અને પ્રતિભાવો એમના એમ રાખ્યા છે.)


અટક ( સુધારા સહીત )


કોઈ અટક પૂછે તો કેવું લાગે કઉ ?

બળતે બપ્પોર જાણે ચપ્પલ વગર ચાલ્યા હોવ પાંચ-પચી ગઉ.


મીઠું મલકીને અમથી બીડી ફૂંકી હો એમ હળવેકથી કરે અટકચાળો,

પછી ભડકે બળે ભીતર એવું કશુક કે હું મેળવી શકું ના ફરી તાળો,

છું કાચો ગણિતમાં પહેલેથી હું, આ દાખલો એને કેમ ગણી દઉં ?


કોઈ અટક પૂછે તો કેવું લાગે કઉ ?

જેના ધુમાડે જાય સુરજ આખો ઢંકાઈ એવો અંતરમાં લાગ્યો હો દવ


કોઈ કોઈ તો વળી તરત ઉમેરે કે આપણે એવું કંઈ રાખતા નથી ભઈ ,

પણ થોથવાતી જીભને એ ના સમજાય કે તો શેની માંડી છે આ પૈડ ?

કચ્ચીને દાઝ મને એવી ચડે કે જાત એની અબઘડી ખંખેરી લઉં.


કોઈ અટક પૂછે તો કેવું લાગે કઉ ?

જાણે સ્થગિત થઇ ગઈ હો પૃથ્વી ને માથે ખાબક્યા હો ગ્રહ નવેનવ.


ગામને શેરમાં, મેળે કે મોલમાં નાતજાત પૂછવાનો ચાલે એવો ક્રમ,

થાક્યા બેઉ માત્મા ને ભીમજી થાક્યો તોય આપણો ભાંગ્યો ના ભ્રમ

એને આટલું જો કહીએ ને તો સુધરી જાય ગમાણના ડોબાંયે સહુ,


કોઈ અટક પૂછે તો કેવું લાગે કઉ ?


-મેહુલ મકવાણા, અમદાવાદ, ૧૭ ઓક્ટોબર 2011


Sunday, October 16, 2011

न जाने कितने अन्ना आए और कितने गए है अब तक !



कुछ प्यादे थे, कुछ मोहरे महज,
और कुछ कुछ तो थे राजा-वजीर !
न बातो से उनकी म्हात हुआ मै,
न ही हरा पायी उनकी शमशीर !
न जाने कितने अन्ना आए
और कितने गए है अब तक !

कुछ ने धरम करम की बात की थी !
कुछ ने तो बड़ी बड़ी सौगात दी थी!
कोई अखंड राष्ट्र का सपना लाया था!
ज़हर भावनाओ को पिलाया था !
न जाने कितने अन्ना आए
और कितने गए है अब तक !

मेरी पीर के इलम का दावा किया कुछ ने !
निशां भी था न एसे जख्मो को ताजा किया कुछ ने !
कुछ कुछ ने तो आकर जुलम भी कई ढाए थे !
और कुछ अनजाने आकर लेने लगे बलाए थे !
न जाने कितने अन्ना आए
और कितने गए है अब तक !

वो भूल गए थे की शतरंज लोगोने भी खेली है ,
कभी आगे कभी पीछे , सब जानते ये पहेली है !
जानते है की क्रांति सच्ची सोच से पैदा होती है !
क्रांति का मतलब ना लालसलाम ना टोपी है !
न जाने कितने अन्ना आए
और कितने गए है अब तक !

न तुम गाँधी हो, न अंबेडकर , ना ही संत कबीर,
खुद को जकड़े हुये , तुम हो महज इक जंजीर,
गर कोई दर्शन हो सच्चा , साफ़ साफ़ बताओ ,
वरना वक़त है अभी भी, घर लौट जाओ !
न जाने कितने अन्ना आए
और कितने गए है अब तक !

- मेहुल मकवाना , १६ ओक्टूबर, २०११, अहमदाबाद


Friday, October 14, 2011

आज का दिन


खिड़कियो से हटा दो पुराने परदे,
टूटे शीशे पे लगे पुराने अख़बार भी निकालो,
खोल दो घर के सारे किवाड़ ,
परिंदों या छिपकलियों से बचने बंद किये,
घर के सारे छेद खोल दो आज !
कर दो किताबो को परे ,
मोबाएल कर लो साईंलेंट ,
ट्विटर और फेसबुक पर लगा दो थोडा ब्रेक ,
घर का सारा काम आज रहने दो धरा !
मान लो आज ऑफिस पे लगा है ताला बड़ा,
आज का दिन बड़ा हसीन है यारो !
आज के दिन ही लिखा जाना है इतिहास नया,
आज के दिन ही बनायीं जानी है कायनात नई,

कल क्या होगा किसे खबर है ?
पर आज के दिन तो बहोत कुछ होनेवाला है ,
सच कहू तो कल देर रात कुछ जुगनुओ के टोले को मैंने ,
कहीं दूर देश में निकले सूरज से बात करते सुना है छुपके !
और इसीलिए मै कहता हु की आज का दिन बड़ा हसीन है यारो !
सिर्फ आज के दिन ही बहोत कुछ हो सकता है !
हो सकता है की आज के दिन ही..

दूर गाँव में रोज देर से आनेवाली बस टाइम से आ जाए,
कोई धन्नू चमार का बेटा और ठाकुर राजसिंह की बेटी,
इसकशादी करने उसी बस से गाँव छोड़कर भाग जाए !
या फिर सूजी आँखोंवाली लखन लम्बू की औरत,
आज के दिन मार न खाए ,
आंसुओ के बवंडर से उभर के वो पकड ले उसकी कलाई !

हो सकता है तंग गली से रोज़ गुजरती,
आते-जाते कतराती आँखों के कोने में,
पलक ज़पकने जितनी ही सही
आज के दिन कोई ख़ुशी खिले !
या आज के दिन बाजार मै,
बरसो पहले बिछड़ा कोई पुराना दोस्त अचानक मिले !
यह हो सकता है की आज के दिन..

हो सकता है की टपरी का राजू आज एक भी गाली न सुने,
या कोई कबीर का वारिस मलमल के साथ कठोर सपना बुने !
आज देखकर बेटे की पहली कमाई किसी माँ की आँखे भर आए,
या फिर चोरी छुपे पढ़ती लड़की का स्कुल में पहला नंबर आए !
आज के दिन बहुत कुछ होनेवाला है !
बहोत कुछ हो सकता है आज के दिन !

जिसको देखेने आँखे तरसी हो,
और भूखे पेट में जाके बरसी हो,
वो फसल आज खेत से घर सही सलामत आए,
और पहली बार हो उसकी सही सही भाग-बटाई !
हो सकता है आज आप की अँखिया किसी से लड़ जाए,
और बेरंग जीवन में खुशियो के फुल खिल आए !

हो सकता है आज के दिन का सूरज कभी न ढले,
और राह चलते खड्डों के साथ...
बंजर बस्ती, भूखे बच्चे, राशन की कतारे,
दंगा-फसाद, छुआछुत, जिस्म हत्याए,
और उसी रस्ते के मोड़ पे होता जिस्मो का सौदा
आज जेहन में खले !

जिसकी तोंद हमारे खून से बनी है ,
एसे करोड़ीमल के घर आज इनकम टेक्स की रेड हो जाए !
या फिर कचहरी का बाबु घुस लेते पकड़ा जाए !
हमको हिस्सों में बाँट के अपनी जित पक्की करनेवाला,
कोई निक्कमा नेता आज अपनी डिपोजिट भी बचा न पाए !

क्या क्या हो सकता है कैसे गिनाऊ मै ?
कल देर रात कुछ जुगनुओ के टोले को मैंने ,
दूर देश में निकले सूरज से बात करते सुना है छुपके !
और इसीलिए मै कहता हु आज का दिन बड़ा हसीन है यारो !
सिर्फ आज के दिन ही बहोत कुछ हो सकता है !
आज का दिन बड़ा हसीन है यारो,
आज के दिन को गले लगा लो !

मेहुल मकवाना , १४ ओक्टोबर २०११, अहमदाबाद

Tuesday, October 11, 2011

न्याय के पक्ष में हु लेकिन मै पूरा तुम्हारे साथ नहीं हु !



(संजीव भट्ट की गिरफ़्तारी को लेकर...)

हमदर्दी तो है तुमसे पर पूरा यकीन होना बाकी है !
कई सवाल है एसे जिनके जवाब ढूँढना बाकी है !

सवाल है की क्यों कानो को देर लगी चींखे सुनने में ?
सवाल है की क्यों जुब़ा को देर लगी सच कहने में ?
सवाल है की तब तुम क्यों ना आए जब हम चीख चीख कर रोते थे ?
कतरा कतरा जीते थे दिनभर और कतरा कतरा रात को सोते थे !

दोस्तों से भी उन दिनों हम कुछ भी बोल ना पाते थे !
थी शर्म से आँखे इतनी गीली की सर भी उठा न पाते थे !
हम तो नजरो के इस भार को एक पल भी जैल ना पाए थे,
हाथ आया सो मरहम लेकर घर से निकल हम आए थे !
सवाल है की नौ साल तक केसे जैला इतना सच तुमने ?

क्यों तब भी तुमने चुप्पी रखी जब श्रीकुमारजी सच बोले थे ?
उनसे भी हिम्मत जुटा न पाए क्या तुम इतने भोले थे ?
हो सकता है सच कहते हो तुम और मानता हु सच ही कहते हो !
पर सच्चाई की लड़ाई में पलक ज़पकना भी देरी होती है !
हम खुद अकेले होते है सारी दुनिया बैरी होती है !

इतिहास का बोध हम सब पर लागु बराबर आता है !
वर्तमान के कर्मो से कोई भूतकाल नहीं धों पाता है !
जैसे कुरुक्षेत्र जितने पर भी पांडव विजय मना ना पाए थे !
हस्तिनापुर के सर पर तभ भी चीरहरण के साये थे !
तुम तो पांडव-कौरव से परे थे फिर चुपचाप देखा चीरहरण क्यों ?
क्यों राजसभा से उठकर तुम सीधे लोगो के पास ना आये ?
इतना बड़ा सच कहने में आखिर इतनी देर तुम क्यों लगाये ?

चाहे मुकदमा कोई भी हो यह सजा पलक ज़पकने की है !
वक़त आने पर अपनी वर्दी की राह से भटकने की है !
जब खुद ही राह से भटके थे तो प्रायश्चित तुमको करना होगा !
हवालात के हिमालय में तुम्हे खुद्द को थोडा तो गलना होगा !

तुम हो चाहे मोदी हो न्याय के प्राचल नहीं बदल सकता हु मै,
इसीलिए हमदर्दी के अलावा और कुछ नहीं दे सकता हु मै !

जब जेल की काली राते तुम में नया उजाला भर देगी !
जब न्याय की देवी सच-जूठ का न्याय सही से कर देगी !
या फिर तुमको औरो की तरह अन्यायों से भर देगी !
तब ही कर पाउँगा यकीन तुम पर !
तब मै तुम्हारे पास आऊंगा !
तब मै तुमको गले लगाऊंगा !
तब तक ,
न्याय के पक्ष में हु लेकिन मै पूरा तुम्हारे साथ नहीं हु !

- मेहुल मकवाना , ११ ओक्टोबर २०११, अहमदाबाद




Monday, October 10, 2011

અટક


કોઈ અટક પૂછે તો કેવું લાગે કઉ ?

બળતે બપ્પોર જાણે ચપ્પલ વગર ચાલ્યા હોવ પાંચ-પચી ગઉ.


મીઠું મલકીને અમથી બીડી ફૂંકી હો એમ હળવેકથી કરે અટકચાળો,

પછી ભડકે બળે ભીતર એવું કશુક કે હું મેળવી શકું ના ફરી તાળો,

છું કાચો ગણિતમાં પહેલેથી હું, આ દાખલો એને કેમ ગણી દઉં ?


કોઈ અટક પૂછે તો કેવું લાગે કઉ ?

બળતે બપ્પોર જાણે ચપ્પલ વગર ચાલ્યા હોવ પાંચ-પચી ગઉ.


કોઈ કોઈ તો વળી તરત ઉમેરે કે આપણે એવું કંઈ રાખતા નથી ભઈ ,

પણ થોથવાતી જીભને એ ના સમજાય કે તો શેની માંડી છે આ પૈડ ?

કચ્ચીને દાઝ એવી ચડે કે જાત એની અબઘડી ખંખેરી લઉં,


કોઈ અટક પૂછે તો કેવું લાગે કઉ ?

બળતે બપ્પોર જાણે ચપ્પલ વગર ચાલ્યા હોવ પાંચ-પચી ગઉ.


ગામને શેરમાં, મેળે કે મોલમાં નાતજાત પૂછવાની ચાલે એવી ફેશન,

થાક્યા બેઉ માત્મા ને ભીમજી થાક્યો તોય હજી આપણું મટે ના પેશન*,

એને આટલું જો કહીએ ને તો સુધરી જાય ગમાણના ડોબાંયે સહુ,


કોઈ અટક પૂછે તો કેવું લાગે કઉ ?

બળતે બપ્પોર જાણે ચપ્પલ વગર ચાલ્યા હોવ પાંચ-પચી ગઉ.

-મેહુલ મકવાણા, અમદાવાદ, ૯ ઓક્ટોબર 2011

નોંધ : પેશન : વળગણ

Thursday, October 6, 2011

मन में रावन, मन में राम !

चले एक दूजे का हाथ थाम !
मै जान न पाऊ आदमी आम !
मन में रावन, मन में राम !

किसको कोसु ? किस को चाहू ?
थे दोनु ग्यानी ,थे दोनु बाहू
फिर क्यों न रखा सीता का मान ?
मन में रावन, मन में राम !
मै जान न पाऊ आदमी आम !

दोष क्या था शम्बूक का आखिर ?
मारा बाली को किस के खातिर ?
कौन अहम में तुम थे गुल्तान ?
मन में रावन, मन में राम !
मै जान न पाऊ आदमी आम !

काहे ना सोंपा सीता को वापिस?
काहे ना मणि विभिष्ण की सिख ?
क्यों लंका को होने दिया राख ?
मन में रावन, मन में राम !
मै जान न पाऊ आदमी आम !

लड़ाई अधूरी छोड़ गए तुम,
हमको हिस्सों में तोड़ गए तुम,
फिर दे दिया उसको धरम का नाम !
मन में रावन, मन में राम !
मै जान न पाऊ आदमी आम !

मेहुल मकवाना , ६ ओक्टोबर २०११, अहमदाबाद