Wednesday, October 6, 2010

जरुरत


तुम जब छपन भोग के स्वाद की बात करते हो ,

या फिर खाने को अपना शौक जताते हो तो मुझे हेरत होती है !

ताज्जुब होता है की मेरी जरुरत तुम्हारा शौक केसे है ?

और फिर मन करता है की तुम्हारा पेट फाड़कर नौच लू सारे रस !


जब में अपनी जरुरत को गोदामों में सड़ता देखता हु,

या फिर किसी निक्कमे नेता को उस बारे में बात करते सुनता हु,

तो मन करता है उस नेता के अन्दर उडल दू सारा गोदाम !

उसके मुह में , नाक में, आँख में , कान में और पिछवाड़े में भी,

इतना अन्न भर दु की हवा का एक कतरा भी अन्दर-बाहर न हो सके !


तुम लोग दुसरे की जरुरत को अपना शौक बनाते हो,

और फिर उसे तोड़ मरोड़ के ऐसे चिल्लाते हो

जेसे कोई चीज ढूंढ़ निकाली हो अभी !

गाँव के बनिए से लेके टाटा-बिरला तक सब एक ही होड़ में लगे है,

और तुम्हारी राजधानी दिल्ही ने तो जेसे ठेका ले रखा है ,

पुरे देश की जरूरतों को चन्द लोगो के शौक में परिवर्तित करने के कारोबार का !


रोटी से लेके सपनो तक की जरूरतों का

और बोटी से लेके हकीकतो तक के शौक का ये खेल बड़ा निराला है !

मेरी जरूरतों को रोंद कर तुम्हारे शौक पनपते जाते है,

और मुझे भनक भी नहीं होती !


कड़ी धूपं या सर्द में धान उगाते हुए निकलते पसीने से गुफ्तगू करते मेने बनाये थे कई गीत,

भेड़ बकरिया चराते रचे थे सुर ताल,

हाथ के छालो से और पांव में चुभे काँटों के दर्द से रचा था संगीत !

वो गीत सारे गीत जो की जरुरत थे खेतो की, घर आनेवाली हर फसल की,

इन सारे गीतों को परे धकेल कर,

तुम जब सात सुरों के सरगम की बात करते हो,

या फिर शाश्त्रीय संगीत की महानता के बारे में बोलते हो ,

या फिर गाने को अपना शौक बताते हो,

या फिर जब ये बोलते हो की स्वयं इश्वर ने पैदा किया संगीत,

तब मेरा मन करता है की पटक दू तुम्हारा सितार

और इतनी जोर से बजाऊ ढोल के सारा जहाँ हिलने लगे !


महनत के रंगों में डुबोके जो मेने रची थी वो सारी कलाए अब तुम्हारी केसे हो गई ?

रोटी से लेके गीत तक मेरी सारी जरूरतों पर केसे हो गया तुम्हारा कब्ज़ा ?

तुम चाहे लाख कोशिश कर लो मुझे उल्ज़ाने की,

मुझे बहलाने की या मुझसे सब छुपाने की ,

लेकिन अब में जान गया हु भेद !

जरूरतों को रोंदकर शौक को हवा देनेवाले तुम्हारे मुखोटे को अब पहचान चूका हु में !


अब से इस देश में किसी के शौक के बारे में न कोई बात होगी न बहस,

जब तक की मेरी जरूरते पूरी नहीं होती ख़ारिज कर दिया जायेगा "शौक " लब्ज़ !

बंगला, गाड़ी, नौकर, अनलिमिटेड इंटरनेट , शोपिंग मोल, मल्टीप्लेक्स...

तुम्हारे शौक चाहे कुछ भी हो , मेरी जरूरते साफ़ है !

जो की काली रात में भी बिना सोडियम लाईट के दिख सकती है !

इन्सान समेत कोई भी जानवर को महसूस हो सकती है !

रोटी चाहिए मुझे खाने के लिए !

कपडा चाहिए तन ढकने के लिए !

मकान चाहिए बसने के लिए !


तुम्हारे शौक चाहे कुछ भी हो ,

बड़े बांध, रिवरफ्रंट या मिनेरल वोटर या फिर कुछ भी,

मुझे पानी चाहिए पिने का ,मुझे वापस चाहिए मेरी नदी !


तुम्हारे शौक चाहे कुछ भी हो ,

हवाई जहाज, नयी मिसाइल , बटर , चीज़ या जाम !

मुझे जमीं चाहियें मेरी, मुझे जंगल चाहिए मेरे !

राग रागिनी या सितार या डी.जे या भरतनाट्यम


तुम्हरे शौक चाहे कुछ भी हो ,

मेरी जरुरत है मेरे गीत , महनत के सुर में रचा मेरा सारा संगीत !

मुझे वापस चाहिए मेरे गीत, मेरा संगीत !

मेरी जरूरतों को रोंद कर बनाया गया तुम्हारा हर शौक अब मेरे निशाने पर है !


में जानता हु की तुम्हे तकलीफ होगी ,

लेकिन और कोई रास्ता नहीं है !

हा एक वादा या समजौता हो सकता है !

जब मेरी जरूरते पूरी हो जाएँगी,

जब कोई न होगा भूखा, प्यासा,

जब सबके पास होंगे कपडे पुरे,

जब सबके पास होंगे मकान अपने,

जब होंगे सबके पास गीत अपने अपने ,

हम साथ मिलकर शौक के बारे में बात करेंगे !

बात करेंगे की रोटी को ज्यादा गोल केसे बना सकते है !

बात करेंगे की अब कौनसी नयी फसल हम उगा सकते है !

वो कौन पेड़ की डाली है जो घाव पे तुम लगाते हो !

मेघधनुष में कितने रंग सचमुच दीखते है !

वादा या समजौता जो तुम चाहो हो सकता है !

शर्त है इतनी की अपनी सारी जरूरते एक हो !


-मेहुल मकवाना, ६ अक्टूबर , २०१०, अहमदाबाद



Friday, October 1, 2010

જીવન આ અમૂલ્ય વેઢારવું પડે છે,
લોહી રોજ પરસેવે ગાળવું પડે છે.

હેમખેમ સાચવવા કોઈ એક પ્રસંગ,
કેટલું બધું જીવનમાં ટાળવું પડે છે.

દરિયા જેવા દરિયાને પણ છેવટ કાંઠે,
મોજું ઈચ્છાઓનું પાછુ વાળવું પડે છે.

આ ભીનાશની આદતમાં એ ય ભૂલ્યો,
પહેલા વરસાદે ઘરને ચાળવું પડે છે.

હોય સુખ કે દુખ ફિતરત બેઉની સરખી,
હોય એથી વધુ એને પંપાળવું પડે છે.

-૧૪ ઓગસ્ટ ૨૦૧૦ , અમદાવાદ